ये किस से आज बरहम हो गई है
कि ज़ुल्फ़-ए-यार पुर-ख़म हो गई है
टपक पड़ते हैं वक़्त-ए-सुब्ह आँसू
ये आदत मिस्ल-ए-शबनम हो गई है
ब-ज़ाहिर गर्म है बाज़ार-ए-उल्फ़त
मगर जिंस-ए-वफ़ा कम हो गई है
ज़हे तासीर-ए-कू-ए-ख़ाक-ए-जानाँ
मिरे ज़ख़्मों पे मरहम हो गई है
बस ऐ दस्त-ए-अजल कुछ रहम भी कर
कि दुनिया बज़्म-ए-मातम हो गई है
नहीं ख़ौफ़-ए-शब-ए-हिज्राँ मुझे अब
मिरी ग़म-ख़्वार ओ हमदम हो गई है
यही हालत है इक मुद्दत से 'महरूम'
तबीअत ख़ूगर-ए-ग़म हो गई है
ग़ज़ल
ये किस से आज बरहम हो गई है
तिलोकचंद महरूम