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2 लाइन शायरी शायरी | शाही शायरी

2 लाइन शायरी

22761 शेर

लब-ए-निगार को ज़हमत न दो ख़ुदा के लिए
हम अहल-ए-शौक़ ज़बान-ए-नज़र समझते हैं

ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ




लब-ए-निगार को ज़हमत न दो ख़ुदा के लिए
हम अहल-ए-शौक़ ज़बान-ए-नज़र समझते हैं

ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ




मैं ने कब दावा-ए-इल्हाम किया है 'ताबाँ'
लिख दिया करता हूँ जो दिल पे गुज़रती जाए

ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ




मंज़िलें राह में थीं नक़्श-ए-क़दम की सूरत
हम ने मुड़ कर भी न देखा किसी मंज़िल की तरफ़

ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ




मंज़िलें राह में थीं नक़्श-ए-क़दम की सूरत
हम ने मुड़ कर भी न देखा किसी मंज़िल की तरफ़

ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ




मेरे अफ़्कार की रानाइयाँ तेरे दम से
मेरी आवाज़ में शामिल तिरी आवाज़ भी है

ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ




रह-ए-तलब में किसे आरज़ू-ए-मंज़िल है
शुऊर हो तो सफ़र ख़ुद सफ़र का हासिल है

ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ