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2 लाइन शायरी शायरी | शाही शायरी

2 लाइन शायरी

22761 शेर

शबाब-ए-हुस्न है बर्क़-ओ-शरर की मंज़िल है
ये आज़माइश-ए-क़ल्ब-ओ-नज़र की मंज़िल है

ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ




तबाहियों का तो दिल की गिला नहीं लेकिन
किसी ग़रीब का ये आख़िरी सहारा था

ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ




तबाहियों का तो दिल की गिला नहीं लेकिन
किसी ग़रीब का ये आख़िरी सहारा था

ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ




उधर चमन में ज़र-ए-गुल लुटा इधर 'ताबाँ'
हमारी बे-सर-ओ-सामानियों के दिन आए

ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ




यादों के साए हैं न उमीदों के हैं चराग़
हर शय ने साथ छोड़ दिया है तिरी तरह

ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ




यादों के साए हैं न उमीदों के हैं चराग़
हर शय ने साथ छोड़ दिया है तिरी तरह

ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ




ये चार दिन की रिफ़ाक़त भी कम नहीं ऐ दोस्त
तमाम उम्र भला कौन साथ देता है

ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ