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दाद भी फ़ित्ना-ए-बेदाद भी क़ातिल की तरफ़ | शाही शायरी
dad bhi fitna-e-bedad bhi qatil ki taraf

ग़ज़ल

दाद भी फ़ित्ना-ए-बेदाद भी क़ातिल की तरफ़

ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ

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दाद भी फ़ित्ना-ए-बेदाद भी क़ातिल की तरफ़
बे-गुनाही के सिवा कौन था बिस्मिल की तरफ़

मंज़िलें राह में थीं नक़्श-ए-क़दम की सूरत
हम ने मुड़ कर भी न देखा किसी मंज़िल की तरफ़

मक़्तल-ए-नाज़ से गुज़रे तो गुज़रने वाले
फूल कुछ फेंक गए दामन-ए-क़ातिल की तरफ़

झिलमिलाते नहीं बे-वजह तो महफ़िल के चराग़
इक नज़र देख तो लो साहब-ए-महफ़िल की तरफ़

कितनी बे-कैफ़ हैं साहिल की फ़ज़ाएँ या रब
कोई तूफ़ान का रुख़ मोड़ दे साहिल की तरफ़

याद आता है वो अंदाज़-ए-तजाहुल ऐ दोस्त
बात औरों से मगर रू-ए-सुख़न दिल की तरफ़

ज़िक्र आया था हयात-ए-अबदी का 'ताबाँ'
लोग क्यूँ तकने लगे कूचा-ए-क़ातिल की तरफ़