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कमाल-ए-बे-ख़बरी को ख़बर समझते हैं | शाही शायरी
kamal-e-be-KHabari ko KHabar samajhte hain

ग़ज़ल

कमाल-ए-बे-ख़बरी को ख़बर समझते हैं

ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ

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कमाल-ए-बे-ख़बरी को ख़बर समझते हैं
तिरी निगाह को जो मो'तबर समझते हैं

फ़रोग़-ए-तूर की यूँ तो हज़ार तावीलें
हम इक चराग़-ए-सर-ए-रहगुज़र समझते हैं

लब-ए-निगार को ज़हमत न दो ख़ुदा के लिए
हम अहल-ए-शौक़ ज़बान-ए-नज़र समझते हैं

जनाब-ए-शैख़ समझते हैं ख़ूब रिंदों को
जनाब-ए-शैख़ को हम भी मगर समझते हैं

वो ख़ाक समझेंगे राज़-ए-गुल-ओ-समन 'ताबाँ'
जो रंग-ओ-बू को फ़रेब-ए-नज़र समझते हैं