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ज़िंदगी दिल पे अजब सेहर सा करती जाए | शाही शायरी
zindagi dil pe ajab sehr sa karti jae

ग़ज़ल

ज़िंदगी दिल पे अजब सेहर सा करती जाए

ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ

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ज़िंदगी दिल पे अजब सेहर सा करती जाए
इक जगह ठहरी लगे और गुज़रती जाए

आँसुओं से कोई आवाज़ को निस्बत न सही
भीगती जाए तो कुछ और निखरती जाए

देखते देखते धुँदला गए मंज़र सारे
तेरी ज़ुल्फ़ों की तरह शाम बिखरती जाए

बात का राज़ खुले बात का अंदाज़ खुले
तेरे होंटों से चले दिल में उतरती जाए

रफ़्ता रफ़्ता किसी गुम-नाम लहू की तहरीर
क़ातिल-ए-शहर के दामन पे उभरती जाए

हो के बर्बाद चले सेहन-ए-चमन से निकहत
दश्त-ओ-सहरा की मगर झोलियाँ भरती जाए

मैं ने कब दावा-ए-इल्हाम किया है 'ताबाँ'
लिख दिया करता हूँ जो दिल पे गुज़रती जाए