इस शोर-ए-तलातुम में कोई किस को पुकारे
कानों में यहाँ अपनी सदा तक नहीं आती
शकेब जलाली
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जाती है धूप उजले परों को समेट के
ज़ख़्मों को अब गिनूँगा मैं बिस्तर पे लेट के
शकेब जलाली
जहाँ तलक भी ये सहरा दिखाई देता है
मिरी तरह से अकेला दिखाई देता है
शकेब जलाली
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जहाँ तलक भी ये सहरा दिखाई देता है
मिरी तरह से अकेला दिखाई देता है
शकेब जलाली
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जो मोतियों की तलब ने कभी उदास किया
तो हम भी राह से कंकर समेट लाए बहुत
शकेब जलाली
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कहता है आफ़्ताब ज़रा देखना कि हम
डूबे थे गहरी रात में काले हुए नहीं
शकेब जलाली
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कहता है आफ़्ताब ज़रा देखना कि हम
डूबे थे गहरी रात में काले हुए नहीं
शकेब जलाली
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