जहाँ तलक भी ये सहरा दिखाई देता है
मिरी तरह से अकेला दिखाई देता है
न इतनी तेज़ चले सर-फिरी हवा से कहो
शजर पे एक ही पत्ता दिखाई देता है
बुरा न मानिए लोगों की ऐब-जूई का
उन्हें तो दिन का भी साया दिखाई देता है
ये एक अब्र का टुकड़ा कहाँ कहाँ बरसे
तमाम दश्त ही प्यासा दिखाई देता है
वहीं पहुँच के गिराएँगे बादबाँ अब तो
वो दूर कोई जज़ीरा दिखाई देता है
वो अलविदा'अ का मंज़र वो भीगती पलकें
पस-ए-ग़ुबार भी क्या क्या दिखाई देता है
मिरी निगाह से छुप कर कहाँ रहेगा कोई
कि अब तो संग भी शीशा दिखाई देता है
सिमट के रह गए आख़िर पहाड़ से क़द भी
ज़मीं से हर कोई ऊँचा दिखाई देता है
खिली है दिल में किसी के बदन की धूप 'शकेब'
हर एक फूल सुनहरा दिखाई देता है
ग़ज़ल
जहाँ तलक भी ये सहरा दिखाई देता है
शकेब जलाली