एक अपना दिया जलाने को
तुम ने लाखों दिए बुझाए हैं
शकेब जलाली
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एक अपना दिया जलाने को
तुम ने लाखों दिए बुझाए हैं
शकेब जलाली
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फ़सील-ए-जिस्म पे ताज़ा लहू के छींटे हैं
हुदूद-ए-वक़्त से आगे निकल गया है कोई
शकेब जलाली
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गले मिला न कभी चाँद बख़्त ऐसा था
हरा-भरा बदन अपना दरख़्त ऐसा था
शकेब जलाली
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गले मिला न कभी चाँद बख़्त ऐसा था
हरा-भरा बदन अपना दरख़्त ऐसा था
शकेब जलाली
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हम-सफ़र रह गए बहुत पीछे
आओ कुछ देर को ठहर जाएँ
शकेब जलाली
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इस शोर-ए-तलातुम में कोई किस को पुकारे
कानों में यहाँ अपनी सदा तक नहीं आती
शकेब जलाली
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