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2 लाइन शायरी शायरी | शाही शायरी

2 लाइन शायरी

22761 शेर

तुम मिरे साथ हो ये सच तो नहीं है लेकिन
मैं अगर झूट न बोलूँ तो अकेला हो जाऊँ

अहमद कमाल परवाज़ी




तुम्हारे वस्ल का जिस दिन कोई इम्कान होता है
मैं उस दिन रोज़ा रखता हूँ बुराई छोड़ देता हूँ

अहमद कमाल परवाज़ी




वो अपने हुस्न की ख़ैरात देने वाले हैं
तमाम जिस्म को कासा बना के चलना है

अहमद कमाल परवाज़ी




चाहिए है मुझे इंकार-ए-मोहब्बत मिरे दोस्त
लेकिन इस में तिरा इंकार नहीं चाहिए है

अहमद कामरान




चंद पेड़ों को ही मजनूँ की दुआ होती है
सब दरख़्तों पे तो पत्थर नहीं आया करता

अहमद कामरान




इक पल का तवक़्क़ुफ़ भी गिराँ-बार है तुझ पर
और हम कि थके-हारे मसाफ़त से गुरेज़ाँ

अहमद कामरान




कुर्रा-ए-हिज्र से होना है नुमूदार मुझे
मैं तिरे इश्क़ का इंकार उठाने लगा हूँ

अहमद कामरान