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तू ज़ियादा में से बाहर नहीं आया करता | शाही शायरी
tu ziyaada mein se bahar nahin aaya karta

ग़ज़ल

तू ज़ियादा में से बाहर नहीं आया करता

अहमद कामरान

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तू ज़ियादा में से बाहर नहीं आया करता
मैं ज़ियादा को मयस्सर नहीं आया करता

मैं तिरा वक़्त हूँ और रूठ के जाने लगा हूँ
रोक ले यार मैं जा कर नहीं आया करता

ऐ पलट आने की ख़्वाहिश ये ज़रा ध्यान में रख
जंग से कोई बराबर नहीं आया करता

चंद पेड़ों को ही मजनूँ की दुआ होती है
सब दरख़्तों पे तो पत्थर नहीं आया करता

अब मुजाविर भी क़लंदर से बड़े हो गए हैं
अब मज़ारों पे कबूतर नहीं आया करता