दश्त में वादी-ए-शादाब को छू कर आया
मैं खुली-आँख हसीं ख़्वाब को छू कर आया
अहमद ख़याल
दिल किसी बज़्म में जाते ही मचलता है 'ख़याल'
सो तबीअत कहीं बे-ज़ार नहीं भी होती
अहमद ख़याल
हवा के हाथ पे छाले हैं आज तक मौजूद
मिरे चराग़ की लौ में कमाल ऐसा था
अहमद ख़याल
किसी दरवेश के हुजरे से अभी आया हूँ
सो तिरे हुक्म की तामील नहीं करनी मुझे
अहमद ख़याल
कोई हैरत है न इस बात का रोना है हमें
ख़ाक से उट्ठे हैं सो ख़ाक ही होना है हमें
अहमद ख़याल
कोई तो दश्त समुंदर में ढल गया आख़िर
किसी के हिज्र में रो रो के भर गया था मैं
अहमद ख़याल
महकते फूल सितारे दमकता चाँद धनक
तिरे जमाल से कितनों ने इस्तिफ़ादा क्या
अहमद ख़याल