दाना-ए-गंदुम-ए-बेदार उठाने लगा हूँ
ख़ाक हूँ ख़ाक का आज़ार उठाने लगा हूँ
कुर्रा-ए-हिज्र से होना है नुमूदार मुझे
मैं तिरे इश्क़ का इंकार उठाने लगा हूँ
लौ ने सरदार किए रक्खा है शब भर तुम को
ऐ चराग़ो मैं ये दस्तार उठाने लगा हूँ
ये खुली जंग है और जंग भी है अपने ख़िलाफ़
इस लिए अपने तरफ़-दार उठाने लगा हूँ
एक आवाज़ मिरी नींद उड़ा देती है
इब्न-ए-आदम तिरे आसार उठाने लगा हूँ
ग़ज़ल
दाना-ए-गंदुम-ए-बेदार उठाने लगा हूँ
अहमद कामरान