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दाना-ए-गंदुम-ए-बेदार उठाने लगा हूँ | शाही शायरी
dana-e-gandum-e-bedar uThane laga hun

ग़ज़ल

दाना-ए-गंदुम-ए-बेदार उठाने लगा हूँ

अहमद कामरान

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दाना-ए-गंदुम-ए-बेदार उठाने लगा हूँ
ख़ाक हूँ ख़ाक का आज़ार उठाने लगा हूँ

कुर्रा-ए-हिज्र से होना है नुमूदार मुझे
मैं तिरे इश्क़ का इंकार उठाने लगा हूँ

लौ ने सरदार किए रक्खा है शब भर तुम को
ऐ चराग़ो मैं ये दस्तार उठाने लगा हूँ

ये खुली जंग है और जंग भी है अपने ख़िलाफ़
इस लिए अपने तरफ़-दार उठाने लगा हूँ

एक आवाज़ मिरी नींद उड़ा देती है
इब्न-ए-आदम तिरे आसार उठाने लगा हूँ