तुझ से बिछड़ूँ तो तिरी ज़ात का हिस्सा हो जाऊँ
जिस से मरता हूँ उसी ज़हर से अच्छा हो जाऊँ
तुम मिरे साथ हो ये सच तो नहीं है लेकिन
मैं अगर झूट न बोलूँ तो अकेला हो जाऊँ
मैं तिरी क़ैद को तस्लीम तो करता हूँ मगर
ये मिरे बस में नहीं है कि परिंदा हो जाऊँ
आदमी बन के भटकने में मज़ा आता है
मैं ने सोचा ही नहीं था कि फ़रिश्ता हो जाऊँ
वो तो अंदर की उदासी ने बचाया वर्ना
उन की मर्ज़ी तो यही थी कि शगुफ़्ता हो जाऊँ
ग़ज़ल
तुझ से बिछड़ूँ तो तिरी ज़ात का हिस्सा हो जाऊँ
अहमद कमाल परवाज़ी