ये बस्ती जानी-पहचानी बहुत है
यहाँ वा'दों की अर्ज़ानी बहुत है
शगुफ़्ता लफ़्ज़ लिक्खे जा रहे हैं
मगर लहजों में वीरानी बहुत है
सुबुक-ज़र्फ़ों के क़ाबू में नहीं लफ़्ज़
मगर शौक़-ए-गुल-अफ़्शानी बहुत है
है बाज़ारों में पानी सर से ऊँचा
मिरे घर में भी तुग़्यानी बहुत है
न जाने कब मिरे सहरा में आए
वो इक दरिया कि तूफ़ानी बहुत है
न जाने कब मिरे आँगन में बरसे
वो इक बादल कि नुक़सानी बहुत है
ग़ज़ल
ये बस्ती जानी-पहचानी बहुत है
इफ़्तिख़ार आरिफ़