बैठे थे जब तो सारे परिंदे थे साथ साथ
उड़ते ही शाख़ से कई सम्तों में बट गए
साग़र आज़मी
देवता मेरे आँगन में उतरेंगे कब ज़िंदगी भर यही सोचता रह गया
मेरे बच्चों ने तो चाँद को छू लिया और मैं चाँद को पूजता रह गया
साग़र आज़मी
इतना नाराज़ हो क्यूँ उस ने जो पत्थर फेंका
उस के हाथों से कभी फूल भी आया होगा
साग़र आज़मी
कश्मीर की वादी में बे-पर्दा जो निकले हो
क्या आग लगाओगे बर्फ़ीली चटानों में
साग़र आज़मी
किस तरह भुलाएँ हम इस शहर के हंगामे
हर दर्द अभी बाक़ी है हर ज़ख़्म अभी ताज़ा है
साग़र आज़मी
मुझ में और तुझ में है ये फ़र्क़ तो अब भी क़ाइम
तू मुझे चाहे मगर तुझ को ज़माना चाहे
साग़र आज़मी
शाम ढले ये सोच के बैठे हम अपनी तस्वीर के पास
सारी ग़ज़लें बैठी होंगी अपने अपने मीर के पास
साग़र आज़मी
शोहरत की फ़ज़ाओं में इतना न उड़ो 'साग़र'
परवाज़ न खो जाए इन ऊँची उड़ानों में
साग़र आज़मी
तुम क्या जानो अपने आप से कितना मैं शर्मिंदा हूँ
छूट गया है साथ तुम्हारा और अभी तक ज़िंदा हूँ
साग़र आज़मी