फूलों से बदन उन के काँटे हैं ज़बानों में
शीशे के हैं दरवाज़े पत्थर की दुकानों में
कश्मीर की वादी में बे-पर्दा जो निकले हो
क्या आग लगाओगे बर्फ़ीली चटानों में
बस एक ही ठोकर से गिर जाएँगी दीवारें
आहिस्ता ज़रा चलिए शीशे के मकानों में
अल्लाह-रे मजबूरी बिकने के लिए अब भी
सामान-ए-तबस्सुम है अश्कों की दुकानों में
आने को है फिर शायद तूफ़ान नया कोई
सहमे हुए बैठे हैं लोग अपने मकानों में
शोहरत की फ़ज़ाओं में इतना न उड़ो 'साग़र'
परवाज़ न खो जाए इन ऊँची उड़ानों में
ग़ज़ल
फूलों से बदन उन के काँटे हैं ज़बानों में
साग़र आज़मी