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ख़ावर एजाज़ शायरी | शाही शायरी

ख़ावर एजाज़ शेर

12 शेर

बदल लिया है ज़रा ख़्वाब के इलाक़े को
मकाँ को छोड़ के अब ला-मकाँ में रहता हूँ

ख़ावर एजाज़




हाथ लगाते ही मिट्टी का ढेर हुए
कैसे कैसे रंग भरे थे ख़्वाबों में

ख़ावर एजाज़




इक अर्से बाद हुई खुल के गुफ़्तुगू उस से
इक अर्से बाद वो काँटा चुभा हुआ निकला

ख़ावर एजाज़




जहाँ तुम हो वहाँ से दूर पड़ती है ज़मीं मेरी
जहाँ मैं हूँ वहाँ से आसमाँ नज़दीक पड़ता है

ख़ावर एजाज़




मिरे और उस के बीच इक धुँद सी मौजूद रहती है
ये दुनिया आ रही है मेरे उस के दरमियाँ शायद

ख़ावर एजाज़




मिरे सेहन पर खुला आसमान रहे कि मैं
उसे धूप छाँव में बाँटना नहीं चाहता

ख़ावर एजाज़




मुझे इस ख़्वाब ने इक अर्से तक बे-ताब रक्खा है
इक ऊँची छत है और छत पर कोई महताब रक्खा है

ख़ावर एजाज़




सुना रही है जिसे जोड़ जोड़ कर दुनिया
तमाम टुकड़े हैं वो मेरी दास्तान के ही

ख़ावर एजाज़




उफ़ुक़ पर डूबने वाला सितारा
कई इम्कान रौशन कर गया है

ख़ावर एजाज़