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कभी मैं चुप कभी हर्फ़-ए-बयाँ में रहता हूँ | शाही शायरी
kabhi main chup kabhi harf-e-bayan mein rahta hun

ग़ज़ल

कभी मैं चुप कभी हर्फ़-ए-बयाँ में रहता हूँ

ख़ावर एजाज़

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कभी मैं चुप कभी हर्फ़-ए-बयाँ में रहता हूँ
मैं अपने शहर की हर इक ज़बाँ में रहता हूँ

बदल लिया है ज़रा ख़्वाब के इलाक़े को
मकाँ को छोड़ के अब ला-मकाँ में रहता हूँ

मैं एक हर्फ़-ए-तसल्ली हूँ नर्म-दिल के लिए
हमेशा से निगह-ए-मेहर-बाँ में रहता हूँ

मुझे ज़मीन पे हर सम्त दर-ब-दर कर के
बता रहा है कि मैं आसमाँ में रहता हूँ

चलो ये मान लिया इक महक हूँ माज़ी की
मगर ये है कि मैं अस्र-ए-रवाँ में रहता हूँ

नई कहानी मुझे क्यूँ गवारा करने लगी
पुराना हर्फ़ हूँ और दास्ताँ में रहता हूँ

सुबुक ख़याल नहीं हूँ कि तेरे हाथ आऊँ
बहुत परे कहीं ख़्वाब-ए-गिराँ में रहता हूँ