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मकाँ नज़दीक है या ला-मकाँ नज़दीक पड़ता है | शाही शायरी
makan nazdik hai ya la-makan nazdik paDta hai

ग़ज़ल

मकाँ नज़दीक है या ला-मकाँ नज़दीक पड़ता है

ख़ावर एजाज़

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मकाँ नज़दीक है या ला-मकाँ नज़दीक पड़ता है
कहीं आ जाओ मुझ को हर जहाँ नज़दीक पड़ता है

जहाँ तुम हो वहाँ से दूर पड़ती है ज़मीं मेरी
जहाँ मैं हूँ वहाँ से आसमाँ नज़दीक पड़ता है

सुना है इक जहान-ए-बे-निहायत हो मगर फिर भी
ये तय है बे-कराँ को बे-कराँ नज़दीक पड़ता है

चले आते हैं हम इक दूसरे की सम्त में वर्ना
तुम्हें सहरा मुझे दरिया कहाँ नज़दीक पड़ता है

नए अल्फ़ाज़ रख कर देखता हूँ कुछ पुरानों में
मआनी से मिरा रिश्ता कहाँ नज़दीक पड़ता है

बला की धूप है दश्त-ए-तलब में ऐ दिल-ए-नादाँ
यहाँ किस आरज़ू का साएबाँ नज़दीक पड़ता है