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ज़मीं के हाथ में हूँ और न आसमान के ही | शाही शायरी
zamin ke hath mein hun aur na aasman ke hi

ग़ज़ल

ज़मीं के हाथ में हूँ और न आसमान के ही

ख़ावर एजाज़

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ज़मीं के हाथ में हूँ और न आसमान के ही
पड़ा हुआ हूँ मैं ऐसी जगह पे जान के ही

न हम से कहते हैं कुछ और न हम से सुनते हैं
ये आदमी हैं किसी दूसरे जहान के ही

तिरे जहान के झगड़ों में हाथ क्यूँ डालों
मुझे बहुत हैं बखेड़े मिरे मकान के ही

सुना रही है जिसे जोड़ जोड़ कर दुनिया
तमाम टुकड़े हैं वो मेरी दास्तान के ही

तिरे फ़लक पे है क्या और भी कोई रौशन
चमक रहे हैं सितारे तो ख़ाक-दान के ही

हमें जो मान रहे हैं ज़बाँ से भी अपनी
इस इंतिहा पे वो आए हैं दिल से मान के ही

किसी से कोई नहीं बाज़-पुर्स दुनिया में
ज़माना पीछे पड़ा है हमारी जान के ही

तो क्या तुझे भी कोई और काम बाक़ी नहीं
जो हम पे रहने लगे दिन ये इम्तिहान के ही

मगर ये क़त्ल की साज़िश कहाँ से आ निकली
वो ख़त वो लोग तो थे मेरे ख़ानदान के ही

सो बंद करना पड़ा मुझ को कारोबार-ए-हयात
वो आ के बैठ गया सामने दुकान के ही