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इक़बाल कैफ़ी शायरी | शाही शायरी

इक़बाल कैफ़ी शेर

10 शेर

अफ़सोस माबदों में ख़ुदा बेचते हैं लोग
अब मअनी-ए-सज़ा-ओ-जज़ा कुछ नहीं रहा

इक़बाल कैफ़ी




अटे हुए हैं फ़क़ीरों के पैरहन 'कैफ़ी'
जहाँ ने भीक में मिट्टी बिखेर कर दी है

इक़बाल कैफ़ी




देखा है मोहब्बत को इबादत की नज़र से
नफ़रत के अवामिल हमें मायूब रहे हैं

इक़बाल कैफ़ी




ग़ज़ल के रंग में मल्बूस हो कर
रुबाब-ए-दर्द से आहंग निकला

इक़बाल कैफ़ी




गुहर समझा था लेकिन संग निकला
किसी का ज़र्फ़ कितना तंग निकला

इक़बाल कैफ़ी




ख़िज़ाँ का दौर भी आता है एक दिन 'कैफ़ी'
सदा-बहार कहाँ तक दरख़्त रहते हैं

इक़बाल कैफ़ी




मैं ऐसे हुस्न-ए-ज़न को ख़ुदा मानता नहीं
आहों के एहतिजाज से जो मावरा रहे

इक़बाल कैफ़ी




मोहब्बतों को भी उस ने ख़ता क़रार दिया
मगर ये जुर्म हमें बार बार करना है

इक़बाल कैफ़ी




फूलों का तबस्सुम भी वो पहला सा नहीं है
गुलशन में भी चलती है हवा और तरह की

इक़बाल कैफ़ी