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साहिल के तलबगार भी क्या ख़ूब रहे हैं | शाही शायरी
sahil ke talabgar bhi kya KHub rahe hain

ग़ज़ल

साहिल के तलबगार भी क्या ख़ूब रहे हैं

इक़बाल कैफ़ी

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साहिल के तलबगार भी क्या ख़ूब रहे हैं
कहते थे न डूबेंगे मगर डूब रहे हैं

तू लाख रहे अहल-ए-मोहब्बत से गुरेज़ाँ
हम लोग तिरे नाम से मंसूब रहे हैं

देखा है मोहब्बत को इबादत की नज़र से
नफ़रत के अवामिल हमें मायूब रहे हैं

लम्हों के लिए एक नज़र उन को तो देखो
सदियों की सलीबों पे जो मस्लूब रहे हैं