ओ वस्ल में मुँह छुपाने वाले
ये भी कोई वक़्त है हया का
हसन बरेलवी
ख़ैर से दिल को तिरी याद से कुछ काम तो है
वस्ल की शब न सही हिज्र का हंगाम तो है
हसन नईम
कहाँ हम कहाँ वस्ल-ए-जानाँ की 'हसरत'
बहुत है उन्हें इक नज़र देख लेना
हसरत मोहानी
वस्ल की बनती हैं इन बातों से तदबीरें कहीं
आरज़ूओं से फिरा करती हैं तक़दीरें कहीं
हसरत मोहानी
सौ चाँद भी चमकेंगे तो क्या बात बनेगी
तुम आए तो इस रात की औक़ात बनेगी
जाँ निसार अख़्तर
इक रात दिल-जलों को ये ऐश-विसाल दे
फिर चाहे आसमान जहन्नम में डाल दे
just one night give these deprived the joy of company
thereafter if you wish merge paradise and purgatory
जलाल लखनवी
तिरा वस्ल है मुझे बे-ख़ुदी तिरा हिज्र है मुझे आगही
तिरा वस्ल मुझ को फ़िराक़ है तिरा हिज्र मुझ को विसाल है
जलालुद्दीन अकबर