कहाँ का वस्ल तन्हाई ने शायद भेस बदला है
तिरे दम भर के मिल जाने को हम भी क्या समझते हैं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ज़रा विसाल के बाद आइना तो देख ऐ दोस्त
तिरे जमाल की दोशीज़गी निखर आई
फ़िराक़ गोरखपुरी
हिकायत-ए-इश्क़ से भी दिल का इलाज मुमकिन नहीं कि अब भी
फ़िराक़ की तल्ख़ियाँ वही हैं विसाल की आरज़ू वही है
ग़ुलाम हुसैन साजिद
इश्क़ पर फ़ाएज़ हूँ औरों की तरह लेकिन मुझे
वस्ल का लपका नहीं है हिज्र से वहशत नहीं
ग़ुलाम हुसैन साजिद
शब-ए-वस्ल थी चाँदनी का समाँ था
बग़ल में सनम था ख़ुदा मेहरबाँ था
हैदर अली आतिश
वस्ल की शब थी और उजाले कर रक्खे थे
जिस्म ओ जाँ सब उस के हवाले कर रक्खे थे
हैदर क़ुरैशी
धड़कती क़ुर्बतों के ख़्वाब से जागे तो जाना
ज़रा से वस्ल ने कितना अकेला कर दिया है
हसन अब्बास रज़ा