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मोहब्बत शायरी | शाही शायरी

मोहब्बत

406 शेर

ज़मीं से उट्ठी है या चर्ख़ पर से उतरी है
ये आग इश्क़ की या-रब किधर से उतरी है

इंशा अल्लाह ख़ान




ठहरी ठहरी सी तबीअत में रवानी आई
आज फिर याद मोहब्बत की कहानी आई

इक़बाल अशहर




आदमी जान के खाता है मोहब्बत में फ़रेब
ख़ुद-फ़रेबी ही मोहब्बत का सिला हो जैसे

इक़बाल अज़ीम




बारहा उन से न मिलने की क़सम खाता हूँ मैं
और फिर ये बात क़स्दन भूल भी जाता हूँ मैं

इक़बाल अज़ीम




हम बहुत दूर निकल आए हैं चलते चलते
अब ठहर जाएँ कहीं शाम के ढलते ढलते

इक़बाल अज़ीम




ज़ियान-ए-दिल ही इस बाज़ार में सूद-ए-मोहब्बत है
यहाँ है फ़ाएदा ख़ुद को अगर नुक़सान में रख लें

इक़बाल कौसर




बदन में जैसे लहू ताज़ियाना हो गया है
उसे गले से लगाए ज़माना हो गया है

इरफ़ान सिद्दीक़ी