ज़मीं से उट्ठी है या चर्ख़ पर से उतरी है
ये आग इश्क़ की यारब किधर से उतरी है
उतरती नज्द में कब थी सवारी-ए-लैला
टुक आह क़ैस के जज़्ब-ए-असर से उतरी है
नहीं नसीम-ए-बहारी ये है परी कोई
उड़न-खटोले को ठहरा जो फ़र से उतरी है
न जान इस को शब-ए-मह ये चाँदनी-ख़ानम
कमंद-ए-नूर पे औज-ए-क़मर से उतरी है
चलो न देखें तो कहते हैं दश्त-ए-वहशत में
जुनूँ की फ़ौज बड़े कर्र-ओ-फ़र्र से उतरी है
नहीं ये इश्क़ तजल्ली है हक़-तआला की
जो राह ज़ीना-ए-बाम-ए-नज़र से उतरी है
लिबास-ए-आह में लिखने के वास्ते 'इंशा'
क़लम दवात तुझे अर्श पर से उतरी है
ग़ज़ल
ज़मीं से उट्ठी है या चर्ख़ पर से उतरी है
इंशा अल्लाह ख़ान