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हर गाम बदलते रहे मंज़र मिरे आगे | शाही शायरी
har gam badalte rahe manzar mere aage

ग़ज़ल

हर गाम बदलते रहे मंज़र मिरे आगे

काशिफ़ हुसैन ग़ाएर

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हर गाम बदलते रहे मंज़र मिरे आगे
चलता ही रहा कोई बराबर मिरे आगे

क्या ख़ाक मिरी ख़ाक में इम्कान हो पैदा
नापैद हैं मौजूद-ओ-मयस्सर मिरे आगे

यूँ देखने वालों को नज़र आता हूँ पीछे
रहता है मसाफ़त में मिरा घर मिरे आगे

रखती है अजब पास मिरी तिश्ना-लबी का
सो मौज उठाती ही नहीं सर मिरे आगे

हँसता ही रहा मैं दर-ओ-दीवार पे अपने
रोता ही रहा मेरा मुक़द्दर मिरे आगे

कल रात जगाती रही इक ख़्वाब की दूरी
और नींद बिछाती रही बिस्तर मिरे आगे

वाक़िफ़ ही नहीं कोई इन आँखों की रविश से
कम कम जो खुला करती हैं अक्सर मिरे आगे

देखे ही नहीं मैं ने कभी आँख में आँसू
पहना ही नहीं उस ने ये ज़ेवर मिरे आगे

'ग़ाएर' मैं कई रोज़ से ख़ामोश हूँ ऐसा
गोया नज़र आते हैं ये पत्थर मिरे आगे