तमाम पैकर-ए-बदसूरती है मर्द की ज़ात
मुझे यक़ीं है ख़ुदा मर्द हो नहीं सकता
फ़रहत एहसास
औरत हूँ मगर सूरत-ए-कोहसार खड़ी हूँ
इक सच के तहफ़्फ़ुज़ के लिए सब से लड़ी हूँ
फ़रहत ज़ाहिद
ज़माने अब तिरे मद्द-ए-मुक़ाबिल
कोई कमज़ोर सी औरत नहीं है
फरीहा नक़वी
अच्छी-ख़ासी रुस्वाई का सबब होती है
दूसरी औरत पहली जैसी कब होती है
फ़े सीन एजाज़
तू आग में ऐ औरत ज़िंदा भी जली बरसों
साँचे में हर इक ग़म के चुप-चाप ढली बरसों
हबीब जालिब
कौन बदन से आगे देखे औरत को
सब की आँखें गिरवी हैं इस नगरी में
हमीदा शाहीन
बेटियाँ बाप की आँखों में छुपे ख़्वाब को पहचानती हैं
और कोई दूसरा इस ख़्वाब को पढ़ ले तो बुरा मानती हैं
इफ़्तिख़ार आरिफ़