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अच्छी-ख़ासी रुस्वाई का सबब होती है | शाही शायरी
achchhi-KHasi ruswai ka sabab hoti hai

ग़ज़ल

अच्छी-ख़ासी रुस्वाई का सबब होती है

फ़े सीन एजाज़

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अच्छी-ख़ासी रुस्वाई का सबब होती है
दूसरी औरत पहली जैसी कब होती है

कुछ मफ़्हूम समझ कर आँखें बोल उट्ठीं
सरगोशी तो यूँही ज़ेर-ए-लब होती है

कोई मसीहा शायद उस को छू गुज़रा
दिल के अंदर इतनी रौशनी कब होती है

तारे टूट के दामन में गिर जाते हैं
जब मेहमान यहाँ इक दुख़तर-ए-शब होती है

इक बे-दाग़ दुपट्टे में पाकीज़ा नूर
कितनी उजली उस की नमाज़ में छब होती है

गिरी पड़ी देखी है सड़क पर तन्हाई
पिछले पहर को शहर की नींद अजब होती है

अक्सर मैं ने क़ब्रिस्तान में ग़ौर किया
अपनी मिट्टी अपने हाथ में कब होती है

अब लगता है इक दिल भी है सीने में
पहले कुछ तकलीफ़ नहीं थी अब होती है

इश्क़ किया तो अपनी ही नादानी थी
वर्ना दुनिया जान की दुश्मन कब होती है

क़दम क़दम पर हम ने आप से नफ़रत की
ऐसी मोहब्बत दिल में किसी के कब होती है

जैसे इक जन्नत की नेमत मिल जाए
मेरे लिए तो घर की फ़ज़ा ही सब होती है

डूबने वाला फिर ऊपर आ जाता है
कभी कभी दरिया की मौज ग़ज़ब होती है

रश्क से मेरा चेहरा तकती है दुनिया
जान की दुश्मन उस की सुर्ख़ी-ए-लब होती है