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औरत हूँ मगर सूरत-ए-कोहसार खड़ी हूँ | शाही शायरी
aurat hun magar surat-e-kohsar khaDi hun

ग़ज़ल

औरत हूँ मगर सूरत-ए-कोहसार खड़ी हूँ

फ़रहत ज़ाहिद

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औरत हूँ मगर सूरत-ए-कोहसार खड़ी हूँ
इक सच के तहफ़्फ़ुज़ के लिए सब से लड़ी हूँ

वो मुझ से सितारों का पता पूछ रहा है
पत्थर की तरह जिस की अँगूठी में जड़ी हूँ

अल्फ़ाज़ न आवाज़ न हमराज़ न दम-साज़
ये कैसे दोराहे पे मैं ख़ामोश खड़ी हूँ

इस दश्त-ए-बला में न समझ ख़ुद को अकेला
मैं चोब की सूरत तिरे ख़ेमे में गड़ी हूँ

फूलों पे बरसती हूँ कभी सूरत-ए-शबनम
बदली हुई रुत में कभी सावन की झड़ी हूँ