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इक जादूगर है आँखों की बस्ती में | शाही शायरी
ek jadugar hai aankhon ki basti mein

ग़ज़ल

इक जादूगर है आँखों की बस्ती में

हमीदा शाहीन

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इक जादूगर है आँखों की बस्ती में
तारे टाँक रहा है मेरी चुनरी में

मेरे सख़ी ने ख़ाली हाथ न लौटाया
ढेरों दुख बाँधे हैं मेरी गठड़ी में

कौन बदन से आगे देखे औरत को
सब की आँखें गिरवी हैं इस नगरी में

जिन की ख़ुशबू छेद रही है आँचल को
कैसे फूल वो डाल गया है झोली में

जिस ने मेहर-ओ-माह के खाते लिखने हों
मैं इक ज़र्रा कब तक उस की गिनती में

इश्क़ हिसाब चुकाना चाहा था हम ने
सारी उम्र समा गई एक कटौती में

हर्फ़-ए-ज़ीस्त को मौत की दीमक चाट भी ले
कब से हूँ महसूर बदन की घाटी में