समझ तो ये कि न समझे ख़ुद अपना रंग-ए-जुनूँ
मिज़ाज ये कि ज़माना मिज़ाज-दाँ होता
आले रज़ा रज़ा
तुम 'रज़ा' बन के मुसलमान जो काफ़िर ही रहे
तुम से बेहतर है वो काफ़िर जो मुसलमाँ न हुआ
आले रज़ा रज़ा
उन के सितम भी कह नहीं सकते किसी से हम
घुट घुट के मर रहे हैं अजब बेबसी से हम
आले रज़ा रज़ा
उस बेवफ़ा से कर के वफ़ा मर-मिटा 'रज़ा'
इक क़िस्सा-ए-तवील का ये इख़्तिसार है
आले रज़ा रज़ा
आ ही गए हैं ख़्वाब तो फिर जाएँगे कहाँ
आँखों से आगे उन की कोई रहगुज़र नहीं
आलोक श्रीवास्तव
यही तो एक तमन्ना है इस मुसाफ़िर की
जो तुम नहीं तो सफ़र में तुम्हारा प्यार चले
आलोक श्रीवास्तव
ये सोचना ग़लत है कि तुम पर नज़र नहीं
मसरूफ़ हम बहुत हैं मगर बे-ख़बर नहीं
आलोक श्रीवास्तव