तुम्हारी मस्लहत अच्छी कि अपना ये जुनूँ बेहतर
सँभल कर गिरने वालो हम तो गिर गिर कर सँभले हैं
आल-ए-अहमद सूरूर
वो तबस्सुम है कि 'ग़ालिब' की तरह-दार ग़ज़ल
देर तक उस की बलाग़त को पढ़ा करते हैं
आल-ए-अहमद सूरूर
ये क्या ग़ज़ब है जो कल तक सितम-रसीदा थे
सितमगरों में अब उन का भी नाम आया है
आल-ए-अहमद सूरूर
बंदिशें इश्क़ में दुनिया से निराली देखें
दिल तड़प जाए मगर लब न हिलाए कोई
आले रज़ा रज़ा
दर्द-ए-दिल और जान-लेवा पुर्सिशें
एक बीमारी की सौ बीमारियाँ
आले रज़ा रज़ा
हम ने बे-इंतिहा वफ़ा कर के
बे-वफ़ाओं से इंतिक़ाम लिया
आले रज़ा रज़ा
क़िस्मत में ख़ुशी जितनी थी हुई और ग़म भी है जितना होना है
घर फूँक तमाशा देख चुके अब जंगल जंगल रोना है
आले रज़ा रज़ा