मैं तुझ को जागती आँखों से छू सकूँ न कभी
मिरी अना का भरम रख ले मेरे ख़्वाब में आ
अब्दुल्लाह कमाल
तुम तो ऐ ख़ुशबू हवाओ उस से मिल कर आ गईं
एक हम थे ज़ख़्म-ए-तन्हाई हरा करते रहे
अब्दुल्लाह कमाल
वो क़यामत थी कि रेज़ा रेज़ा हो के उड़ गया
ऐ ज़मीं वर्ना कभी इक आसमाँ मेरा भी था
अब्दुल्लाह कमाल
गुलचीं बहार-ए-गुल में न कर मन-ए-सैर-ए-बाग़
क्या हम ग़ुबार दामन-ए-बाद-ए-सबा के हैं
अब्दुल्ल्ला ख़ाँ महर लखनवी
आवाज़ दे रहा है अकेला ख़ुदा मुझे
मैं उस को सुन रहा हूँ हवाओं के कान से
अब्दुर्रहीम नश्तर
अपनी ही ज़ात के सहरा में सुलगते हुए लोग
अपनी परछाईं से टकराए हय्यूलों से मिले
अब्दुर्रहीम नश्तर
देख रहा था जाते जाते हसरत से
सोच रहा होगा मैं उस को रोकूँगा
अब्दुर्रहीम नश्तर