यक़ीं का दाएरा देखा है किस ने
गुमाँ के दाएरे में क्या नहीं है
अब्दुल्लाह जावेद
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ज़मीं को और ऊँचा मत उठाओ
ज़मीं का आसमाँ से सर लगेगा
अब्दुल्लाह जावेद
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आओ आज हम दोनों अपना अपना घर चुन लें
तुम नवाह-ए-दिल ले लो ख़ित्ता-ए-बदन मेरा
अब्दुल्लाह कमाल
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अभी गुनाह का मौसम है आ शबाब में आ
नशा उतरने से पहले मिरी शराब में आ
अब्दुल्लाह कमाल
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अपने वजूद से परे अब
कोई भी रास्ता नहीं है
अब्दुल्लाह कमाल
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चमक दे चाँद को ठंडक हवा को दिल को उमंग
उदास क़िस्से को फिर एक शाहज़ादा दे
अब्दुल्लाह कमाल
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इक मुसलसल जंग थी ख़ुद से कि हम ज़िंदा हैं आज
ज़िंदगी हम तेरा हक़ यूँ भी अदा करते रहे
अब्दुल्लाह कमाल
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