अभी गुनाह का मौसम है आ शबाब में आ
नशा उतरने से पहले मिरी शराब में आ
धनक सी ख़्वाब सी ख़ुशबू सी फिर बरस मुझ पर
नई ग़ज़ल की तरह तू मिरी किताब में आ
उठा न देर तक एहसान मौसम-ए-गुल का
मैं ज़िंदगी हूँ मुझे जी मिरे अज़ाब में आ
वो मेरे लब के परिंदे वो तेरा झील-बदन
बुझा न प्यास मिरी तू मगर सराब में आ
तिरे दरीचे से है दूर मेरा दरवाज़ा
अगर तू दर्द है मेरा तो दिल के बाब में आ
मैं तुझ को जागती आँखों से छू सकूँ न कभी
मिरी अना का भरम रख ले मेरे ख़्वाब में आ
ग़ज़ल
अभी गुनाह का मौसम है आ शबाब में आ
अब्दुल्लाह कमाल