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अभी गुनाह का मौसम है आ शबाब में आ | शाही शायरी
abhi gunah ka mausam hai aa shabab mein aa

ग़ज़ल

अभी गुनाह का मौसम है आ शबाब में आ

अब्दुल्लाह कमाल

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अभी गुनाह का मौसम है आ शबाब में आ
नशा उतरने से पहले मिरी शराब में आ

धनक सी ख़्वाब सी ख़ुशबू सी फिर बरस मुझ पर
नई ग़ज़ल की तरह तू मिरी किताब में आ

उठा न देर तक एहसान मौसम-ए-गुल का
मैं ज़िंदगी हूँ मुझे जी मिरे अज़ाब में आ

वो मेरे लब के परिंदे वो तेरा झील-बदन
बुझा न प्यास मिरी तू मगर सराब में आ

तिरे दरीचे से है दूर मेरा दरवाज़ा
अगर तू दर्द है मेरा तो दिल के बाब में आ

मैं तुझ को जागती आँखों से छू सकूँ न कभी
मिरी अना का भरम रख ले मेरे ख़्वाब में आ