मंज़रों के भी परे हैं मंज़र
आँख जो हो तो नज़र जाए जी
अब्दुल्लाह जावेद
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फिर नई हिजरत कोई दरपेश है
ख़्वाब में घर देखना अच्छा नहीं
अब्दुल्लाह जावेद
साहिल पे लोग यूँही खड़े देखते रहे
दरिया में हम जो उतरे तो दरिया उतर गया
अब्दुल्लाह जावेद
सजाते हो बदन बेकार 'जावेद'
तमाशा रूह के अंदर लगेगा
अब्दुल्लाह जावेद
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शाइरी पेट की ख़ातिर 'जावेद'
बीच बाज़ार के आ बैठी है
अब्दुल्लाह जावेद
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तर्क करनी थी हर इक रस्म-ए-जहाँ
हाँ मगर रस्म-ए-वफ़ा रखनी ही थी
अब्दुल्लाह जावेद
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तुम अपने अक्स में क्या देखते हो
तुम्हारा अक्स भी तुम सा नहीं है
अब्दुल्लाह जावेद
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