मुझी को वाइज़ा पंद-ओ-नसीहत
कभी उस को भी समझाया तो होता
वाजिद अली शाह अख़्तर
तुराब-ए-पा-ए-हसीनान-ए-लखनऊ है ये
ये ख़ाकसार है 'अख़्तर' को नक़्श-ए-पा कहिए
वाजिद अली शाह अख़्तर
तुराब-ए-पा-ए-हसीनान-ए-लखनऊ है ये
ये ख़ाकसार है 'अख़्तर' को नक़्श-ए-पा कहिए
वाजिद अली शाह अख़्तर
उल्फ़त ने तिरी हम को तो रक्खा न कहीं का
दरिया का न जंगल का समा का न ज़मीं का
वाजिद अली शाह अख़्तर
याद में अपने यार-ए-जानी की
हम ने मर मर के ज़िंदगानी की
वाजिद अली शाह अख़्तर
याद में अपने यार-ए-जानी की
हम ने मर मर के ज़िंदगानी की
वाजिद अली शाह अख़्तर
यही तशवीश शब-ओ-रोज़ है बंगाले में
लखनऊ फिर कभी दिखलाए मुक़द्दर मेरा
वाजिद अली शाह अख़्तर