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2 लाइन शायरी शायरी | शाही शायरी

2 लाइन शायरी

22761 शेर

वो काम मेरा नहीं जिस का नेक हो अंजाम
वो राह मेरी नहीं जो गई हो मंज़िल को

वहशत रज़ा अली कलकत्वी




यहाँ हर आने वाला बन के इबरत का निशाँ आया
गया ज़ेर-ए-ज़मीं जो कोई ज़ेर-ए-आसमाँ आया

वहशत रज़ा अली कलकत्वी




यहाँ हर आने वाला बन के इबरत का निशाँ आया
गया ज़ेर-ए-ज़मीं जो कोई ज़ेर-ए-आसमाँ आया

वहशत रज़ा अली कलकत्वी




ज़ालिम की तो आदत है सताता ही रहेगा
अपनी भी तबीअत है बहलती ही रहेगी

वहशत रज़ा अली कलकत्वी




ज़बरदस्ती ग़ज़ल कहने पे तुम आमादा हो 'वहशत'
तबीअत जब न हो हाज़िर तो फिर मज़मून क्या निकले

वहशत रज़ा अली कलकत्वी




ज़बरदस्ती ग़ज़ल कहने पे तुम आमादा हो 'वहशत'
तबीअत जब न हो हाज़िर तो फिर मज़मून क्या निकले

वहशत रज़ा अली कलकत्वी




ज़माना भी मुझ से ना-मुवाफ़िक़ मैं आप भी दुश्मन-ए-सलामत
तअज्जुब इस का है बोझ क्यूँकर मैं ज़िंदगी का उठा रहा हूँ

वहशत रज़ा अली कलकत्वी