सुना है कूच तो उन का पर इस को क्या कहिए
ज़बान-ए-ख़ल्क़ को नक़्क़ारा-ए-ख़ुदा कहिए
मिसी लगा के सियाही से क्यूँ डराते हो
अँधेरी रातों का हम से तो माजरा कहिए
हज़ार रातें भी गुज़रीं यही कहानी हो
तमाम कीजिए इस को न कुछ सिवा कहिए
हुआ है इश्क़ में ख़ासान-ए-हक़ का रंग सफ़ेद
ये क़त्ल-ए-आम नहीं शोख़ी-ए-हिना कहिए
तुराब-ए-पा-ए-हसीनान-ए-लखनऊ है ये
ये ख़ाकसार है 'अख़्तर' को नक़्श-ए-पा कहिए
ग़ज़ल
सुना है कूच तो उन का पर इस को क्या कहिए
वाजिद अली शाह अख़्तर