मैं तिरे हिज्र की गिरफ़्त में हूँ
एक सहरा है मुब्तला मुझ में
ताहिर अज़ीम
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मैं तिरे हिज्र में जो ज़िंदा हूँ
सोचता हूँ विसाल से आगे
ताहिर अज़ीम
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मुझ को भी हक़ है ज़िंदगानी का
मैं भी किरदार हूँ कहानी का
ताहिर अज़ीम
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रहता है ज़ेहन ओ दिल में जो एहसास की तरह
उस का कोई पता भी ज़रूरी नहीं कि हो
ताहिर अज़ीम
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शहर की इस भीड़ में चल तो रहा हूँ
ज़ेहन में पर गाँव का नक़्शा रखा है
ताहिर अज़ीम
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सोच अपनी ज़ात तक महदूद है
ज़ेहन की क्या ये तबाही कुछ नहीं
ताहिर अज़ीम
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सोच अपनी ज़ात तक महदूद है
ज़ेहन की क्या ये तबाही कुछ नहीं
ताहिर अज़ीम
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