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हर दर्द की दवा भी ज़रूरी नहीं कि हो | शाही शायरी
har dard ki dawa bhi zaruri nahin ki ho

ग़ज़ल

हर दर्द की दवा भी ज़रूरी नहीं कि हो

ताहिर अज़ीम

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हर दर्द की दवा भी ज़रूरी नहीं कि हो
मेरे लिए ज़रा भी ज़रूरी नहीं कि हो

रहता है ज़ेहन ओ दिल में जो एहसास की तरह
उस का कोई पता भी ज़रूरी नहीं कि हो

इंसान से मिलो भी तो इंसान जान कर
हर शख़्स देवता भी ज़रूरी नहीं कि हो

किस ने तुम्हें ज़बान अता की कि आज तुम
कहते हो जो ख़ुदा भी ज़रूरी नहीं कि हो

क़ाएम 'अज़ीम' उस की रज़ा से है ज़िंदगी
इस में मिरी रज़ा भी ज़रूरी नहीं कि हो