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इक अनोखी रस्म को ज़िंदा रखा है | शाही शायरी
ek anokhi rasm ko zinda rakha hai

ग़ज़ल

इक अनोखी रस्म को ज़िंदा रखा है

ताहिर अज़ीम

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इक अनोखी रस्म को ज़िंदा रखा है
ख़ून ही ने ख़ून को पसपा रखा है

अब जुनून-ए-ख़ुद-नुमाई में तो हम ने
वहशतों का इक दरीचा वा रखा है

शहर कैसे अब हक़ीक़त-आश्ना हो
आगही पर ज़ात का पहरा रखा है

तीरगी की क्या अजब तरकीब है ये
अब हवा के दोश पर दीवा रखा है

तुम चराग़ों को बुझाने पर तुले हो
हम ने सूरज को भी अब अपना रखा है

तुम हमारे ख़ून की क़ीमत न पूछो
इस में अपने ज़र्फ़ का अर्सा रखा है

शहर की इस भीड़ में चल तो रहा हूँ
ज़ेहन में पर गाँव का नक़्शा रखा है

ये 'अज़ीम' अपना कमाल-ए-ज़र्फ़ है जो
दुश्मनों के ऐब पर पर्दा रखा है