ख़्वाहिशों की बादशाही कुछ नहीं
दिल में शौक़-ए-कज-कुलाही कुछ नहीं
क्यूँ अदालत को शवाहिद चाहिएँ
क्या ये ज़ख़्मों की गवाही कुछ नहीं
सुब्ह लिक्खी है अगर तक़दीर में
रात की फिर ये सियाही कुछ नहीं
सोच अपनी ज़ात तक महदूद है
ज़ेहन की क्या ये तबाही कुछ नहीं
ज़र्फ़ शामिल है हमारे ख़ून में
ये तुम्हारी कम-निगाही कुछ नहीं
हँस के मिलता है उमूमन वो 'अज़ीम'
इस तरह जैसे हुआ ही कुछ नहीं
ग़ज़ल
ख़्वाहिशों की बादशाही कुछ नहीं
ताहिर अज़ीम