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2 लाइन शायरी शायरी | शाही शायरी

2 लाइन शायरी

22761 शेर

गुल खिलाए न कहीं फ़ित्ना-ए-दौराँ कुछ और
आज-कल दौर-ए-मय-ओ-जाम से जी डरता है

अख़्तर अंसारी अकबराबादी




गुलों का ज़िक्र बहारों में कर चुके 'अख़्तर'
अब आओ होश में बर्क़-ओ-शरर की बात करो

अख़्तर अंसारी अकबराबादी




हम जो लुटे उस शहर में जा कर दुख लोगों को क्यूँ पहुँचा
अपनी नज़र थी अपना दिल था कोई पराया माल न था

अख़्तर अंसारी अकबराबादी




हो कोई मौज-ए-तूफ़ाँ या हवा-ए-तुंद का झोंका
जो पहुँचा दे लब-ए-साहिल उसी को नाख़ुदा समझो

अख़्तर अंसारी अकबराबादी




इक हुस्न-ए-मुकम्मल है तो इक इश्क़-सरापा
होश्यार सा इक शख़्स है दीवाना सा इक शख़्स

अख़्तर अंसारी अकबराबादी




कुछ अँधेरे हैं अभी राह में हाइल 'अख़्तर'
अपनी मंज़िल पे नज़र आएगा इंसाँ इक रोज़

अख़्तर अंसारी अकबराबादी




क्या करिश्मा है मिरे जज़्बा-ए-आज़ादी का
थी जो दीवार कभी अब है वो दर की सूरत

अख़्तर अंसारी अकबराबादी