हर लम्हा अता करता है पैमाना सा इक शख़्स
आँखों में लिए बैठा है मय-ख़ाना सा इक शख़्स
और इस के सिवा अंजुमन-ए-नाज़ में क्या है
है शम्अ' सा इक शख़्स तो परवाना सा इक शख़्स
ख़ामोश निगाहों में क़यामत का असर था
गुज़रा है सुनाता हुआ अफ़्साना सा इक शख़्स
इक हुस्न-ए-मुकम्मल है तो इक इश्क़-सरापा
होश्यार सा इक शख़्स है दीवाना सा इक शख़्स
हम जल्वा-ए-अस्नाम से बेज़ार हैं लेकिन
मिलता है वहाँ रूह-ए-सनम-ख़ाना सा इक शख़्स
ग़ज़ल
हर लम्हा अता करता है पैमाना सा इक शख़्स
अख़्तर अंसारी अकबराबादी