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न राज़-ए-इब्तिदा समझो न राज़-ए-इंतिहा समझो | शाही शायरी
na raaz-e-ibtida samjho na raaz-e-intiha samjho

ग़ज़ल

न राज़-ए-इब्तिदा समझो न राज़-ए-इंतिहा समझो

अख़्तर अंसारी अकबराबादी

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न राज़-ए-इब्तिदा समझो न राज़-ए-इंतिहा समझो
नज़र वालों तुम्हें करना है अब दुनिया में क्या समझो

तलब में सिद्क़ है तो एक दिन मंज़िल पे पहुँचोगे
क़दम आगे बढ़ाओ ख़ुद को अपना रहनुमा समझो

ये क्या अंदाज़ है इतना गुरेज़ अहल-ए-तमन्ना से
ख़ुदा तौफ़ीक़ दे तो अहल-ए-दिल का मुद्दआ समझो

तुम्हारे हर इशारे पर सर-ए-तस्लीम ख़म लेकिन
गुज़ारिश है कि जज़्बात-ए-मोहब्बत को ज़रा समझो

हो कोई मौज-ए-तूफ़ाँ या हवा-ए-तुंद का झोंका
जो पहुँचा दे लब-ए-साहिल उसी को नाख़ुदा समझो

जिसे देखो वही बदमस्त ही मग़रूर है हमदम
कोई बंदा नहीं दुनिया में किस किस को ख़ुदा समझो

यहाँ रहबर के पर्दे में बहुत रहज़न हैं ऐ 'अख़्तर'
रहो दूर उस से तुम जिस को वफ़ा ना-आश्ना समझो