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ज़िंदगी होगी मिरी ऐ ग़म-ए-दौराँ इक रोज़ | शाही शायरी
zindagi hogi meri ai gham-e-dauran ek roz

ग़ज़ल

ज़िंदगी होगी मिरी ऐ ग़म-ए-दौराँ इक रोज़

अख़्तर अंसारी अकबराबादी

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ज़िंदगी होगी मिरी ऐ ग़म-ए-दौराँ इक रोज़
मैं सँवारूंगा तिरी ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ इक रोज़

गुल खिलाएगी नई मौज-ए-बहाराँ इक रोज़
टूट ही जाएँगे क़ुफ़्ल-ए-दर-ए-ज़िन्दाँ इक रोज़

कितने उलझे हुए हालात-ए-ज़माना हैं अभी
होंगे शाने पे मिरे गेसू-ए-जानाँ इक रोज़

अहल-ए-ज़िंदाँ से ये कह दो कि ज़रा सब्र करें
होगा हर सम्त गुलिस्ताँ ही गुलिस्ताँ इक रोज़

आ के इक रोज़ जलाऊँगा मुरादों के दिए
तेरी महफ़िल में करूँगा मैं चराग़ाँ इक रोज़

जान देता हूँ अभी इश्क़ के अंदाज़ पे मैं
हुस्न होगा मिरे पहलू में ग़ज़ल-ख़्वाँ इक रोज़

कुछ अँधेरे हैं अभी राह में हाइल 'अख़्तर'
अपनी मंज़िल पे नज़र आएगा इंसाँ इक रोज़