ज़माने से मोहब्बत का अभी तक
ये हासिल है कि कुछ हासिल नहीं है
अख़लाक़ बन्दवी
चटक में ग़ुंचे की वो सौत-ए-जाँ-फ़ज़ा तो नहीं
सुनी है पहले भी आवाज़ ये कहीं मैं ने
अख़्तर अली अख़्तर
फ़रेब-ए-जल्वा कहाँ तक ब-रू-ए-कार रहे
नक़ाब उठाओ कि कुछ दिन ज़रा बहार रहे
अख़्तर अली अख़्तर
गुफ़्तुगू-ए-सूरत-ओ-म'अनी है उनवान-ए-हयात
खेलते हैं वो मिरी फ़ितरत की हैरानी के साथ
अख़्तर अली अख़्तर
मुझी को पर्दा-ए-हस्ती में दे रहा है फ़रेब
वो हुस्न जिस को किया जल्वा-आफ़रीं मैं ने
अख़्तर अली अख़्तर
तुम ने हर ज़र्रे में बरपा कर दिया तूफ़ान-ए-शौक़
इक तबस्सुम इस क़दर जल्वों की तुग़्यानी के साथ
अख़्तर अली अख़्तर
बदन के शहर में आबाद इक दरिंदा है
अगरचे देखने में कितना ख़ुश-लिबास भी है
अख़्तर अमान